कामदा एकादशी व्रत कथा से मिलता है वाजपेय यज्ञ जितना पुण्य 

चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कामदा एकादशी कहा जाता है। साल में कुल 24 एकादशी पड़ती है। एकादशी तिथि भगवान विष्णु को समर्पित है। इस दिन पूरे विधि विधान से भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। इस दिन भक्त पूरे दिन फलाहार करते हुए व्रत करता है। साथ ही भगवान विष्णु की पूजा तथा आरती की जाती है। ऐसी मान्यता है कि व्रत वाले दिन व्रत की कथा का श्रवण जरूर करना चाहिए। इसके प्रभाव से व्रत का फल प्राप्त होता है और मनोकामनाएं भी पूरी होती हैं। कामदा एकादशी के दिन इससे जुड़ी पौराणिक व्रत कथा का पाठ जरूर करें। कामदा एकादशी व्रत कथा प्राचीनकाल में भोगीपुर नामक एक नगर था। वहां पर अनेक ऐश्वर्यों से युक्त पुण्डरीक नामक एक राजा राज्य करता था।

 भोगीपुर नगर में अनेक अप्सरा, किन्नर तथा गन्धर्व रहते थे। उनमें से एक जगह ललिता और ललित नाम के दो स्त्री-पुरुष अत्यंत वैभवशाली घर में निवास करते थे। उन दोनों में अत्यंत स्नेह था, यहां तक कि अलग-अलग हो जाने पर दोनों व्याकुल हो उठते थे। एक समय पुण्डरीक की सभा में अन्य गंधर्वों सहित ललित भी गान कर रहा था। गाते-गाते उसको अपनी प्रिय ललिता का ध्यान आ गया और उसका स्वर भंग होने के कारण गाने का स्वरूप बिगड़ गया। ललित के मन के भाव जानकर कार्कोट नामक नाग ने पद भंग होने का कारण राजा से कह दिया। तब पुण्डरीक ने क्रोधपूर्वक कहा कि तू मेरे सामने गाता हुआ अपनी स्त्री का स्मरण कर रहा है। अत: तू कच्चा मांस और मनुष्यों को खाने वाला राक्षस बनकर अपने किए कर्म का फल भोग। पुण्डरीक के श्राप से ललित उसी क्षण महाकाय विशाल राक्षस बन गया। उसका मुख अत्यंत भयंकर, नेत्र सूर्य-चंद्रमा की तरह प्रदीप्त तथा मुख से अग्नि निकलने लगी। 

उसकी नाक पर्वत की कंदरा के समान विशाल हो गई और गर्दन पर्वत के समान लगने लगी। सिर के बाल पर्वतों पर खड़े वृक्षों के समान लगने लगे तथा भुजाएं अत्यंत लंबी हो गईं। इस प्रकार राक्षस बनकर वह अनेक प्रकार के दुःख भोगने लगा। जब उसकी प्रियतमा ललिता को इस घटना की जानकारी मिली तो वह बहुत दुखी हुई और वह अपने पति के उद्धार का उपाय सोचने लगी। वह राक्षस अनेक प्रकार के घोर दुःख सहता हुआ घने वनों में रहने लगा। उसकी स्त्री उसके पीछे-पीछे जाती और विलाप करती रहती। एक बार ललिता अपने पति के पीछे घूमती-घूमती विन्ध्याचल पर्वत पर पहुंच गई, जहां पर श्रृंगी ऋषि का आश्रम था। ललिता शीघ्र ही श्रृंगी ऋषि के आश्रम में गई और वहां जाकर विनीत भाव से प्रार्थना करने लगी।

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